सोने की चिडिया उड़ते उड़ते.. आ फंसी है खटिक के पाशों में..
नेताओं ने ऐयाशी की... वीर शहीदों के लाशों पे...
भारत की बोली लग गयी है नीलामी विश्व बाज़ारों में...
जाती, कॉम और क्षेत्रवाद ने बाटा वतन हज़ारों में....
विश्व शांति की बातें करते हैं... मरघट ख़ुद हिन्दुस्तान बना...
अरे लोकतंत्र की तो डींगे हैं..... संसद ख़ुद कब्रिस्तान बना...
नपुंसक राजनीती को बचाने .. वीरो ने न्योछावर कर दी जान....
फांसी तो दूर... खातिर हुई अफ़ज़ल की ! तमाशा देखा हिन्दुस्तान...
जेलों में बंद कर खिला रहे गद्दारों दहशतगर्दों को....
गद्दी पर बैठे हैं हिजडे .... क्या हुआ देश के मर्दों को??
क्या खौल नही उठता है रक्त ... नेताओं की सर्प सी बोली पर??
अरे ज़र्रे से दुश्मन की साँसे लिख दो अपनी हर बोल पर...
हुंकार करो ऐसा की... दुश्मन घर बैठा ही डर जाए....
... पर उससे पहले.. दुआ करो कुछ कायर नेता मर जाएँ....
इसी हाँ...ना... ने जकड रखा है देश के भाग्य भाल और फौजों को....
भूल गए?? हम युवा हैं... कोई रोक न पाया मौजों को...
My cousin wrote this poem and wanted a suitable title. Suggestions?
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